Wednesday, November 25, 2009

मलाल......

बात उन दिनों की है जब मैं रिपोर्टिंग में था....खबर मिली कि नोएडा के रजनीगंधा चौक के पास से एक मोटरसाइकिल सवार का कार में सवार लोगों ने अपहरण कर लिया....मैं फौरन अपने कैमरामैन के साथ स्पॉट पर पहुंच गया....लेकिन वहां कुछ नहीं था...चौराहे पर ही कोने में पुलिस चौकी है....सो जानकारी के लिए वहां पहुंचा...वहां भी काफी देर तक तो कोई पुलिसकर्मी नजर नहीं आया...फिर एक जनाब नजर आए तो उन्होंने बताया कि अपह्मत युवक की मोटरसाइकिल पीछे खड़ी है...और इसके अलावा फिलहाल अपने पास कोई जानकारी नहीं है...अपने सूत्रों से जानकारी की..तो पता चला कि मोटरसाइकिल गाजियाबाद के किसी शख्स की है..लेकिन उसने गाड़ी छह महीने पहले नोएडा के एक सज्जन को बेच दी थी...फिर क्या था उन सज्जन का नाम पता खंगाला गया...पता चला कि जनाब सेक्टर सत्ताईस के एक मकान में रहते हैं...फिर क्या था फौरन हम लोग उनके मकान की ओर दौड़े...भई आखिर टीआरपी का खेल है...सो सबसे पहले विजुअल बटोरने की होड़ तो थी ही...और मैं किसी से पीछे कैसे रह सकता था...पहुंचे अपह्मत हुए भाई साहब के घर...उनकी पत्नी को तबतक जानकारी नहीं थी...हम लोगों ने बताया तो...मानों घर में भूचाल आ गया हो...दहाड़ मार मार कर रोने लगी वों...और बात भी कुछ ऐसी ही थी..हम लोगों ने उनको ढांढस बंधाया...और फिर उनसे जानकारी ली..पता चला कि उनके पड़ोस के ही रहने वाले एक नामचीन शख्स से उनकी मकान को लेकर झगड़ा चल रहा है...वो उन्होंने उन्हीं नामचीन पर अपना शक जाहिर कर दिया...फिर क्या था हम लोग पहुंचे....उन नामचीन सज्जन के यहां...जहां वो अपनी पत्नी के साथ बैठे हुए थे...हम कुछ पूछते तबतक पुलिस भी आ गई..सो उनसे कुछ पूछने का मौका नहीं मिला...हां इतना जरूर था कि कैमरामैन ने पुलिस और उक्त नामचीन शख्स के विजुअल जरूर बना लिए थे...फिर हम पहुंचे...थाना बीस जहां हमनें उन नामचीन की बाइट लेनी चाहिए...लेकिन उन्हें नाराजगी जाहिर करते हुए बाइट देने से इनकार कर दिया...हमें क्या था हम तो अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित थे ही ...उठाई लेखनी और लिख डाला एक शानदार पैकेज झ्र् दो पक्षों बाइट वाली कहानी ट ...हालांकि इसमें दूसरे पक्ष की बाइट नहीं मिली थी....और कैमरामैन को विजुअल्स की लॉग सीट यानि दृश्य विवरणिका तैयार करने के लिए कहा...अभी हम चैनल को खबर भेज भी ना पाए थे...कि खबर मिली कि अपह्मत हुए युवक के मिलने की खबर मिली...हम भागे भागे थाना बीस पहुंचे ...जहां एसएसपी इस मामले में पीसी कर रहे थे...हमने भी देखा अपह्मत युवक को...उन्होंने बताया कि उनके मुहल्ले में रहने वाले उसी नामचीन शख्स ने उनका अपहरण कराया था।...खैर हमने एक और खबर पैक की...और भेज दिया अपने चैनल में...खबर चल गई...मैं खबर चलवाकर भूल गया कि ऐसा कुछ हुआ था...दो दिन बाद की बात हैं मैं एक चौहारे पर कोई कवरेज कर रहा था...उसी दौरान मेरे पास एक फोन आया...एक महिला रो बिलख रही थी...और मुझसे पूछ रही थी कि क्या आप ईटीवी से हैं...मैंने जवाब दिया हां...फिर क्या था फोन पर ही उन महिला ने आंसुओं का समंदर बहा दिया...इस समंदर में एक क्षण को मैं भी डूबने लगा था...लेकिन मैंने खुद को संभाला और उनकी बात सुनी...वो बता रही थीं...कि उनके पति को पुलिस ने फर्जी मामले में फंसा दिया है...जानते हैं ये वही मामला था....जिसमें सेक्टर सत्ताईस में रहने वाले युवक की धर्मपत्नी ने उनके ही सेक्टर में रहने वाले नामचीन शख्स पर अपहरण का आरोप लगाया था...मैंने उन महिला की बात सुनी...वो उन्हीं नामचीन की पत्नी थीं....और सिसककर रो रही थीं...उन्होंने मुझे बताया कि पुलिस ने उनके पति के खिलाफ झूठा मामला बनाया है...इतना ही नहीं रिपोर्ट में पुलिस ने उनके पति को गाजियाबाद के जंगलों से गिरफ्तार करने की बात कही थी...जबकि हकीकत में उन्हें पुलिस हमारे सामने घर से ले गई थी...वो मुझसे आग्रह कर रही थीं...कि मैं उन्हें घटना वाले दिन के विजुअल्स मैं उन्हें उपलब्ध करा दूं....आपको जानकारी दे दूं...कि उनके घर में मियां बीवी के अलावा कोई नहीं था...मेरा मतलब उनके बच्चे नहीं थे...ऐसे में वो महिला बेचारी किन हालात से गुजर रही थीं..कि अंदाजा शायद आप लगा सकते हैं...उम्र के ढलते पढ़ाव में एक महिला का एक मात्र साथी जेल चला जाए..तो उसके दिल पर क्या गुजर रही होगी...मैंने उनकी बात सुनी और फिर उन्हें एक आ·ाासन देकर फोन रख दिया...हालांकि आ·ाासन देना मेरे डेली रूटीन में था...और मैं फिर अपने काम में जुट गया..थका हारा घर पहुंचा...लेकिन उस महिला की बातें मेरे जहन से निकलने का नाम नहीं ले रही थीं...मैं अतंरद्वंद में पड़ा था...समझ नहीं पा रहा था कि क्या करू...पुलिस की इस हरकत पर मुझे बड़ा क्रोध आ रहा था....लेकिन चुप था..एक बात और जिन जनाब का अपहरण हो गया था...उन्होंने भी पुलिस के सामने बयान दिया था कि वो शख्स उन्हें साथ लेकर गाजियाबाद के जंगलों में गया था...यानि अपह्मत होने वाला शख्स भी झूठ बोल रहा था...और इस तरह मुझे मामले में कई पेंच नजर आए...इस जानकारी के दिमाग में आने के बाद... मन ने कहा कि उस महिला की मदद करनी चाहिए...आखिर किसी इंसान को गलत तरीके से फंसाया जा रहा है..और मैं जानते हुए कैसे चुप रहूं..बस फिर क्या था मैंने अपनी टेप...यानि कैसेट खंगालनी शुरू की..लेकिन नहीं मिली..मजबूरन किसी और से कहना पड़ा और मैंने वो टेप सीडी में ट्रांसफर कर उन महिला को पकड़ा दी....जिसके बाद उसी सीडी के बिनाह पर पर कोर्ट से उन नामचीन शख्स को जमानत पर छोड़ दिया..उन्होंने इसके लिए मुझे इसके लिए जमकर धन्यवाद दिया...मैं घर आ गया...वो नामचीन इस बुढ़ापे में आज भी उस मामले में कोर्ट में केस लड़ रहे हैं....उनके साथ कभी ना खत्म होने वाली तारीखों का दौर जारी है..लेकिन मैं उस घटना के बाद से कई दिनों तक पुलिस की हकीकत पर बहुत नाराज था...लेकिन क्या करता...सिस्टम है यहां ना जाने कितने पुलिसवाले कितने मासूमों को फर्जी केस में अंदर कर देते हैं...शायद पैसे के लिए या फिर किसी और स्वार्थ के लिए...मैं नहीं जानता...उसके बाद कई मामलों में इस तरह की सच्चाई मेरे सामने आई लेकिन सिर्फ इस एक मामले के अलावा मैं किसी और में... कभी कुछ कर नहीं पाया....इसका मुझे आजतक मलाल है...आज मुझे अचानक ये बात याद आई सो मैंने सोचा कि अपने इस लेख के जरिए ही सही अपने इस मलाल को आपसे बांटकर कुछ कम करूं....हालांकि आप में से बहुत से लोग होंगे जो इस सच्चाई से रोजाना नहीं तो कभी ना कभी दो चार होते रहते होंगे।

Wednesday, November 18, 2009

आई अब आटे की बारी



आपकी थाली में पाई जाने वाली दाल के बाद अब दिल्ली सरकार का निशाना उसके साथ रखी रोटी पर है....महंगाई से राहत दिलाने की तथाकथित मुहिम में सस्ती दाल के बाद अब दिल्ली सरकार लोगों को सस्से आटे का झुनझुना दिखा रही है...यानि अब दाल के बाद आटे के जरिए पब्लिक को बेवकूफ बनाने की तैयारी है...जबकि हर नेता और राजनीतिज्ञ जानता है...कि पब्लिक सब जानती है...फिर भी आंकड़ों में खुद को बेहतर दिखाने के लिए जनता का दुख दर्द कम करने की मुहिम चलाई जा रही है..वो भी ऐसे समय में जब सस्ती दाल की हकीकत लोगों की थालियों तक पहुंच चुकी है..एक सौ बत्तीस सरकारी केंद्रो के जरिए दिल्ली सरकार लोगों को सस्ती दर पर...भले ही वो आम आदमी के लिए सस्ता ना हो....उपलब्ध कराएगी....दाम होगा एक सौ उनतालीस रुपये प्रति दस किलो.....खास बात ये है कि दिल्ली सरकार की मुखिया शीला दीक्षित ने इस बार दिल्लीवासियों को आ·ाासन दिया है....कि दाल की तरह आटे के बिक्री केंद्रों पर गड़बड़ी नहीं होगी..और लोगों को पूरी सहूलियत के साथ सही दाम पर आटा मिलेगा....लेकिन उनका ये दावा कितना पुख्ता है...ये तो आने वाले कुछ ही दिनों में आटे के बिक्री केंद्रों पर नुमाया हो ही जाएगा....और मान लीजिए अगर ये स्कीम फेल भी हो गई....तो जनता फिल्हाल क्या बिगाड़ लेगी सरकार का....क्योंकि दिल्ली सरकार में बैठे लोग जानते हैं कि फिलहाल कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता ...और इसीलिए फिलहाल वो लोग पूरी तरह से तल्लीन है सत्ता का सुख भोगने में...क्योंकि अब जनता को जो भी हिसाब लेना होगा...वो तो अगले विधानसभा चुनाव के समय ही हो पाएगा..ऐसे में जनता के ये प्रतिनिधि उस बात को सोच सोचकर क्यों अभी से अपना दिल जलाएं...रही बात जनता की तो ये तो इतिहास गवाह है...कि उसकी याददाश्त बेहत कमजोर होती है....चुनाव से ठीक छह महीने पहले कतरन लेकर शुरू हो जाएंगे....पैबंद लगाने के लिए.....जनता के दुखदर्द पर....तब तक तुम्हारी भी जय जय...हमारी भी जय जय

जलवायु परिवर्तन पर सकारात्मक रवैये की जरूरत



दुनिया का वातावरण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से बुरी तरह प्रभावित हो रहा है....अगर समय रहते सभी इस गंभीर खतरे को लेकर ना चेते तो इसका सीधा खामियाजा सबसे पहले समुद्र तटीय इलाकों को उठाना पड़ेगा...वजह...ओजोन परत में छेद अगर और बढ़ा तो उन इलाकों में गर्मी बढ़ेगी...जहां सूर्य की रौशन बिना किसी रोकटोक के यानि ओजोन परत से बिना छने सीधे धरातल तक पहुंचेगी...जिसका तापमान दुनिया के बाकी के क्षेत्रों से ज्यादा होगा..नतीजतन वहां का जनजीवन तो प्रभावित होगा ही..साथ ही पूरी दुनिया इससे प्रभावित होगी...इस दिशा में कोपेनहेगेन में भारत के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की प्रतिबद्धता वास्तव में सराहनीय है...जिन्होंने काफी लंबे समय के बाद भारत की ओर से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने की बात कही...उन्होंने कहा कि हालांकि भारत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले देशों की सूची में पांचवे नंबर पर है...फिर भी उसे स्वैच्छिक कटौती जैसे कदम सत्रह साल पहले ही उठा लेने चाहिए थे...उन्होंने कहा कि हम इस में कटौती के लिए तैयार हैं...लेकिन हम विकसित देशों के मुकाबले प्रति व्यक्ति के आधार पर उत्सर्जन में कटौती करेंगे...प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए भी कानून बनाया जाएगा...और जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए भी कठोर कानून बनाए जाएंगे...इसके अलावा आर्थिक विकास को इन गैसों के उत्सर्जन से जोड़ा जाएगा ...लेकिन ऐसी प्रतिबद्धता कई देश पहले ही दिखा चुके हैं...और हकीकत में ये मुहिम आज तक परवान नहीं चढ़ पाई है...ऐसे में जरूरत है सभी देशों को गंभीरता से सोचने और त्वरित निर्णय लेने की...ताकि दुनिया को ओजोन परत के क्षय से होने वाले संभावित खतरे से बचाया जा सके..उसको बचाने के लिए सही दिशा में कदम उठाए जा सकें...मौजूदा समय में भारत में प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन 1.2 टन है...जबकि अमेरिका और रूस जैसे देशों में ये आंकड़ा 20 से 22 टन है। जो अगले कई वर्षों में और बढ़ेगा...ऐसे में इस पर तुरंत सोचने की और अमलीजामा पहनाने की जरूरत है।

Tuesday, November 17, 2009

मैं महंगाई हूं

इन दिनों मेरी चर्चा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। चारों ओर, खेत खलिहान से लेकर घरों के दलान तक। शहर की गलियों से लेकर खेल के मैदान तक। हर तरफ मैं ही मैं हूं, दूसरा कोई नहीं। जब मैं अपने शबाब पर आती हूं तो देश की ज्यादातर आबादी को नानी याद आ जाती है। वे हाय हाय करते दिखाई देते हैं। फर्क नहीं पड़ता तो सिर्फ उनको जिनके पास अकूत दौलत है या फिर उनको जो सरकारी खजाने से अपना परिवार चलाते हैं।
जी हां, आपने बिलकुल ठीक समझा। मैं महंगाई हूं। इन दिनों पूरे देश में मेरा ही जलवा है। हर ओर मेरी ही चर्चा है। मैं सर्वत्र व्याप्त हूं। मैं कहीं भी पहुंच सकती हूं। और किसी पर भी काबिज हो सकती हूं। पिछले दिनों सब्जी के राजा कहे जाने वाले आलू को गुमान हो गया था कि उससे सस्ती कोई सब्जी नहीं, तो बस मैं उस पर काबिज हो गई। अब हाल देख लो। .... ऐसी ही कुछ सनक सिरफिरी दाल पर भी सवार हो गई थी, जिसे देखो वही कहता था- बस, दाल रोटी चल रही है। मैं ऐसा कब तक देख सकती थी। अगर देखती रहती तो मेरा वजूद ही खत्म हो जाता, बस मैं दाल पर सवार हो गई, अब बताओ कौन कहता है-‘दाल रोटी चल रही है।’ मैंने बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके दूध पर भी अपनी गिद्ध नजरें गड़ा दीं। अब गरीब माएं बच्चों को पानी मिलाकर दूध पिलाती हैं। मेरी खुद की आंखों में पानी भर आया। मुझे द्रोणाचार्य याद आ गए। किस तरह उन्होंने अश्वत्थामा को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया था चीनी मिलाकर। लेकिन मैंने तो चीनी की मिठास में भी जहर घोल दिया है। आखिर, मुझे अपना वजूद बचाए रखना है। सरकारें तो अपना वजूद बचाने के लिए नरसंहार तक करवा देती हैं, न जाने कितनी मांओं की गोद सूनी करवा देती हैं। कितनी सुहागिनों को विधवा करवा देती हैं। इनके मुकाबले तो मैंने कुछ भी नहीं किया।
मैं कोने में गुमसुम पड़ी थी, चुपचाप। सब अपनी अपनी कर रहे थे। दिल्ली की सरकार आंखें मूंदे काॅमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में लगी थी, उसे भी मुझसे मतलब नहीं थी। सरकार में शामिल नेताओं, विपक्षी नेताओं को मेरे आने जाने से विशेष फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मुझे अपना वजूद बचाना था। इसलिए मैं हर दिन किसी न किसी जरूरी वस्तु पर सवार होती गई, यहां तक कि कम कमाने वाले लोगों के जीवन की गाड़ी करीब करीब पंचर हो गई, लेकिन ‘गरीबों की सरकार’ फिर भी नहीं चेती। बल्कि उसने और चीजों पर सवार करवा दिया। पहले बिजली के तारों पर सवारी करवाई, और बिजली के दाम बढ़ा दिए, फिर डीटीसी की नई नवेली बसों में सवारी करवा कर अपनी जेब गर्म की, और अब दिल्ली की पहचान बन चुकी मेट्रो में भी मुझे सवार कर दिया। लोग मेरी हाय-हाय कर रहे हैं। लेकिन कर कुछ भी नहीं रहे।
अकेले मैंने देश की सरकार गिरवा दी थी। वो भी सिर्फ प्याज पर सवार होकर। लेकिन पता नहीं, इस बार इन सरकारों को क्या हो गया है? सभी जानबूझ कर मुझे जरूरी चीजों पर सवार करा रहे हैं। विपक्षी नेता मेरे बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं, लेकिन उन्हें भी पता है, जब मेरे चढ़ते जाने के पीछे सरकार ही है तो कोई उसका और मेरा भी क्या बिगाड़ लेगा। अब किसी के पास रीढ़ नहीं बची है, सभी बिना रीढ़ वाले जीव की तरह रेंग रहे हैं। और जनता पिस रही है।
ये लेख राजन अग्रवाल के ब्लॉग अपना इलाका से साभार लिया गया है।

Sunday, November 15, 2009

मीडिया का बाल दिवस



चौदह नवंबर बाल दिवस, यानि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिवस...पूरी धूमधाम के साथ देशभर में मनाया गया....इस मौके पर स्कूलों में बच्चों की ओर से कई तरह के रंगारंग कार्यक्रम भी पेश किए गए....इन कार्यक्रमों को अभिभावकों ने खूब सराहा....जाहिर सी बात है, उनके बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं....खैर ये अच्छी बात है....इस खास मौके को भुनाने में मीडिया ने कोई कोरकसर बाकी नहीं छोड़ी...अखबार हो या फिर न्यूज चैनल, हर कोई नेहरू जी के बारे में और उनके प्रिय यानि बच्चों के बारे में कई तरह की खबरें दिखाने में होड़ लगाते दिखा...कहीं कोई भूखे नंगे बच्चों को विजुअल्स के जरिए परोसने की कोशिश में जुटा था...तो अखबार अपनी कलम की धार के जरिए भीख मांगते और चाय की दुकानों, होटलों और सड़क पर गंदगी में अपनी जरूरत का सामान तलाश करते बच्चों की कहानी को कागज पर उकेर कर परोस रहे थे....आखिर मीडिया है....समाज को सजग करने का काम इसके ही जिम्मे है....ऊपर से देश के जिम्मेदार नागरिक भी हैं..ये सभी मीडिया समाज के लोग...ऐसे में समाज की कुरीतियों को उजागर करना तो जरूरी हो ही जाता है...सो बालदिवस के खास मौके पर गरीब और असहाय बच्चों की स्टोरी दिखाकर उनके दुख दर्द दूर करने का बीड़ा उठाया....खूब दिखाई और लिखी गर्इं कहानियां...ऐसे बच्चों पर..और लोगों ने नाश्ते की टेबल पर,खाने के समय और शाम तक उन्हें खूब पढ़ा भी...उन्हें भी इन खबरों को पढ़कर ऐसे बच्चों पर दया आ गई...कि क्या इस तरह से भी बच्चे जिंदगी जीने को मजबूर हैं...खैर दस पांच मिनट सोचा...फिर अपने काम में जुट गए...भई याददाश्त है...कमजोर हो जाती है....तो उधर टीवी और अखबार वाले भी अगले दिन खुश नजर आए...किसी ने कहा खबर खूब बिकी...तो किसी ने कहा सर्कुलेशन बेहतर रहा...बस पूरा हो गया उन असहाय और दुखियारे बच्चों के नाम पर उठाया गया मीडिया का बीड़ा...क्या सिर्फ बालदिवस पर ही गरीब बच्चों के दुखदर्द उकेरने से उनके कष्ट दूर हो जाएंगे...क्या बाकी दिनों में मीडिया के जिम्मेदार लोगों की उन पर नजर नहीं पड़ती...क्या बाकी दिनों में उन पर खबरों से टीआरपी नहीं बढ़ेगी....या फिर बालदिवस को छोड़कर उन बच्चों की स्टोरी दिखाने या लिखने लायक नहीं रहती....शायद हर चीज का दिन होता है...इसी तरह बालदिवस इन बच्चों के नाम रहा...ऊपर से अब हर चीज तो बिजनेस बन गई है...सो ज्यादा सोचने की जरूरत भी नहीं है..लेकिन क्या यही है मीडिया की हकीकत...क्या इस पेशे को शुरू करने वालों ने कभी ऐसा सोचा था...क्या कुछ दिनों पहले पंचतत्व में विलीन हुए प्रभाष जी इसी मीडिया के पक्षधर थे...बालदिवस के दिन जब मैं खुद इस तरह के पैकेजेज लिखने में तल्लीन था...मेरे जेहन में कुछ ऐसे ही सवाल कौंध गए थे....ये सवाल मैं हर मीडियाकर्मी से पूछने से पहले खुद से भी पूछ चुका हूं....लेकिन जवाब अभी तक नहीं मिल पाया है...उम्मीद करता हूं...इसके जवाब में आप कुछ बोलेंगे

कॉपियों का मूल्यांकन

शिक्षकों को देश के कर्णधारों का निर्माता माना जाता है...हमारी नई पौध को तराशकर उन्हें जिंदगी में अपने पैरों पर खड़े होने के लायक बनाने का काम शिक्षकों के जिम्मे होता है...और शायद इसीलिए शिक्षक का स्थान हर घर में आदरणीय होता है...माना जाता है...लेकिन आजकल बहुत से ऐसे शिक्षक हैं...जिन्होंने इस पेशे को गंदा करने में कोई कोरकसर बाकी नहीं रखी है...इसी का ताजा उदाहरण मुझे हरियाणा के लोहारू में देखने के लिए मिला...जहां मेरे साथ काम करने वाले मेरे साथी प्रवींद्र...एक माध्यमिक स्कूल में चल रहे हरियाणा शिक्षा बोर्ड की परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन कार्य के बारे में जानकारी लेने पहुंचे थे...लेकिन वहां का नजारा देखकर वो हैरान रह गए...स्कूल के शिक्षक घर से कॉपियां लेकर आ रहे थे ...वो कॉपियां जो बोर्ड परीक्षा की थीं...वो कॉपियां जिन्हें घर ले जाना अवैध है....लेकिन वहां के ज्यादातर शिक्षक इस काम में लिप्त नजर आए...इन सभी बातों को लोगों के सामने लाने के लिए प्रवींद्र ने ये जानकारियां अपने कैमरे में साक्ष्य के तौर पर बटोरी....इतना ही नहीं कुछ ऐसे भी शिक्षक वहां नजर आए...जो इस मूल्यांकन कार्य के योग्य ही नहीं थे..यानि ना तो वो कहीं पढ़ाते थे...और ना ही उनके पास इसके लिए आवश्यक डिग्री....लेकिन वो मूल्यांकन कर रहे थे...जब प्रवींद्र ने उनसे बात करनी चाही तो वो भाग खड़े हुए...इतना ही नहीं शिक्षकों ने नाम ना लेने की शर्त पर यहां तक बताया कि बहुत से शिक्षक ऐसे हैं...जो अपने घर में अपने बच्चों से कॉपियों का मूल्याकन कराते हैं ...खैर यहां तक भी ठीक था...लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं जिनके घर पर कॉपियों को ठीक कराने वालों की भीड़ भी जुटती है....जिसका मतलब आप बखूबी समझते हैं...यानि विद्यार्थियों के साथ क्या कुछ चल रहा है...और उनके भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ हो रहा है....ये आप समझ सकते हैं...इसमें उन हीरो टाइप छात्रों की तो चांदी हो जाती है...जो साल भर सिर्फ मटरगश्ती करते हैं....लेकिन बेचारे मारे वो जाते हैं जो पूरी साल अपनी आखें कमजोर कर परीक्षा देते हैं...ऐसे मूल्यांकन का नतीजा ये होता है...कि असल विद्यार्थी गलत मूल्यांकन का शिकार हो जाते हैं ...और जो ना पढ़ने वाले हैं ...वो जोर और सिफारिश का पूरा इस्तेमाल कर वाहवाही के हकदार बन जाते है....इससे अच्छी मेधा वाले बच्चों में विकार पैदा होता है...ऐसे में मेरे जहन में ये सवाल उठता है कि क्या कोई ऐसी चीज बची है...जिसमें मोलभाव नहीं होता है...जिसमें धांधली नहीं है जिसमें भ्रष्टाचार नहीं है....लेकिन ऐसे सवालों के जवाब के लिए हम सभी को आवाज उठानी पड़ेगी ...बोलना पड़ेगा

Saturday, November 14, 2009

बीस का योद्धा.

क्रिकेट की दुनिया में रिकॉड्र्स को अपना गुलाम बनाने वाले मास्टर ब्लास्टर के कदमों पर हर युवा चलना चाहता है. मगर क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर जिस तरह से उम्मीदों के इस दबाव पर खरे उतरें हैं... वो शायद हर किसी के बूते की बात नहीं. तभी तो कहते हैं कि सचिन आज भी वैसे हैं जैसे कल थे. महज पंद्रह साल की उम्र में देश की देसी लीग रणजी ट्रॉफी से अपना सफर शुरु करने वाले इस महान बल्लेबाज ने शतक जड़कर क्रिकेट के रणनीतिकारों को अपना परिचय दिया. देवधार और दिलीप ट्रॉफी में भी शतक से आगाज करने वाले सच्चू ने फिर भारतीय टीम में दस्तक दे दी. इसके बाद रनों की गंगा ऐसी बही कि आज सभी यही कह रहे हैं कि सोलह साल के सच्चू और छत्तीस साल के मास्टर ब्लास्टर के कद की कोई हद नहीं लेकिन जमीन से जुड़ाव बीस साल पुराना ही नजर आता है. पंद्रह नवंबर उन्नीस सौ नवासी में पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के खिलाफ जब मास्टर ब्लास्टर ने चौका जड़कर अपने इंटरनेश्नल क्रिकेट करियर का आगाज किया तो किसी के जेहन में ये नहीं था कि साल दो हजार में नौ में भी ये मराठा नॉट आउट पारी खेलता नजर आएगा... हिन्दुस्तान में बीस साल में सात प्रधानमंत्री बदले जा चुके हैं लेकिन रनों के एवरेस्ट पर सवार मास्टर ब्लास्टर का कोई विकल्प अभी तक तैयार नहीं हुआ. कहते हैं ना.... भगवान बदलते नहीं... और क्रिकेट का भगवान भी इसी फलसफे की एक बानगी है......हमें नाज है अपने हीरो पर .....जिसने हिंदुस्तान में क्रिकेट की परिभाषा को बदल कर रख दिया...या यूं कहें कि जिसकी बदौलत आज क्रिकेट हिंदुस्तान में खेला नहीं जाता....बल्कि पूजा जाता है...

तहजीब

उड़ानों के लिए खुद को बहुत तय्यार करता है
ज़मी पर है मगर वो आसमां से प्यार करता है

ये कैसा दौर है इस दौर की तहजीब कैसी है
जिसे भी देखिये वो पीठ पर ही वार करता है

गुज़र जाते हैं बाकी दिन हमारे बदहवासी में
ज़रा सी गुफ्तगू कुछ देर बस इतवार करता है

तुम्हारे आंसुओं को देखना मोती कहेगा वो
सियासतदान है वो दर्द का व्यापार करता है

हवस के दौर में बेकार हैं अब प्यार के किस्से
घडा लेकर भला अब कौन दरिया पार करता है

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Friday, November 13, 2009

बाल दिवस की हकीकत.....

कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने कभी लिखा था.....वह तोड़ती पत्थर, इलाहाबाद के पथ पर। आज इस बच्चे को देख कर हम कह सकते हैं.....वह तोड़ता पत्थर, पटियाला के पथ पर। इलाहाबाद हो, चाहे पटियाला....आज बाल मजदूरी की दर बढ़ती ही जा रही है। किसी को कूड़ा इकट्ठा करना पड़ता है....कोई दो वक्त की रोटी के लिए अपने जीवन को बदरंग कर दूसरों के लिए रंगीन गुब्बारे लिए घूमता है। बड़ी संख्या में बच्चे जूठे बर्तन धोने के लिए भी मजबूर हैं। क्या चाय की दुकान, क्या होटल और क्या घर...सभी जगह बचपन काम के बोझ के तले दबा नजर आ रहा है। ऐसे में जब हम बाल दिवस मना रहे हैं......कैसे उम्मीद करें कि देश के सभी बच्चे....अपने चाचा नेहरू के सपने को पूरा कर सकेंगे। सरकारी और स्वयंसेवी संगठन लाखों रूपये खर्चकर बाल मजदूरी रोकने और बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने का दावा भले ही करते हों...लेकिन हकीकत सड़कों पर साफ देखी जा सकती है। बाल मजदूरी को रोकने और इसके खिलाफ सख्त कार्रवाई को लेकर जिम्मेदार अधिकारियों के पास जाओ तो वो इस बारे में बनाए गए सरकारी कानून के बारे में तफशील से जानकारी देने के लिए सीना चौड़ा कर तैयार हो जाते हैं....लेकिन जब बात उनके विभाग की ओर से उठाए गए ठोस कदमों के बारे में करें...तो कहीं बात कहीं और अटकाने की कोशिश में जुटे नजर आते हैं....कमोबेश यही नजारा हर जगह देखने को मिल जाता है ....।हमारे बीच से बच्चों के चाचा नेहरू को गये...... पैंतालीस साल हो गये हैं। फिर भी आज भी लाखों बच्चों के सपने अधूरे हैं और जिनके पूरे होने के कोई आसार भी नजर नहीं आ रहे....ऐसे में कोई भरोसा करना भी चाहे कि देश में सभी बच्चों को समान विकास के लिए सुविधाएं मिलेंगी....तो भला कैसे...क्या उम्मीद की कोई किरण कहीं नजर आ रही है...जवाब होगा....फिलहाल तो ओझल है.....हां ये जरूर है कि इनमें से बहुत से सपने सरकारी फाइलों में जरूर पूरे किए जा चुके र्हैं। सबकुछ जानते हैं हम लेकिन फिर भी ना कुछ करना चाहते हैं और ना ही आवाज उठाना चाहते हैं...क्या यही हमारी असलियत है...जरा आप भी खुद से पूछ कर देखिए...हकीकत से दो चार हो जाएंगे।...उसके बावजूद अगर बोलने का माद्दा रखते हैं..तो यहां बोलिए....

Thursday, November 5, 2009

श्रद्धांजलि.....पत्रकारिता पुरुष को

पत्रकारिता को जीने वाले पत्रकारिता के स्तम्भ...माने जाने वाले प्रभाष जोशी..अब हमारे बीच नहीं है...गुरुवार रात को भारत ऑस्ट्रेलिया मैच के खत्म होने से कुछ देर पहले ही..प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ा...दौरा पड़ने के बाद बगल के डॉक्टर...को बुलाया गया....जिन्होंने परिवार के लोगों को प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ने की खबर दी..उसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया...जहां डॉक्टरों ने उनके ना होने की जानकारी दी...इसी के साथ बन गया पत्रकारिता का एक शून्य ...जिसे भर पाना किसी के लिए फिलहाल मुमकिन नहीं है...मैं प्रभाष जी से सिर्फ एक ही बार मिल पाया...इसे चाहे मेरी खुशनसीबी कहें...या फिर दोबारा ना मिल पाने की बदनसीबी...लेकिन करीब से मिलने के बाद जो कुछ मैंने ...उनकी शख्सियत में पाया...वो वाकई....अदभुद था...हिंदी हो या फिर इंग्लिश दोनों भाषाओं पर उनकी जबरदस्त पकड़ थी...किसी भी लेख को दोनों ही भाषाओं बखूबी लिखने का माद्दा था उनमें...राजनीति की गंदगी और खेल खासकर क्रिकेट पर लिखने में वो भी करारा लिखने में उनको महारत हासिल थी...पत्रकारिता में बहुत ही कम ऐसे नाम हैं...जिनके लेखों से सरकारें हिल जाती रही हैं...उनमें से प्रभाष जी सर्वोपरि माने जाते हैं....प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री सभी उनके लेखों के जरिए कभी ना कभी चोटिल जरूर हुए....पत्रकारिता को अपना जीवन मानने वाले प्रभाष जी ने कभी भी अपने सिद्धांतो से समझौता नहीं किया...वो हमेशा से सेना पर दुश्मन के सीने पर गोली तानने वाले सिपाही की तरह अपनी कलम के साथ डटे...प्रभाष जी अपने पीछे दो बेटे और एक बेटी छोड़ गए हैं....जिनमें से एक बेटा और बेटी पत्रकारिता में ही हैं...जबकि एक एयर इंडिया के साथ कार्यरत हैं..हम उनके चले जाने के बाद खाली हुई उनकी जगह को भर तो नहीं सकते ...लेकिन उनको अपने लेख के जरिए एक श्रद्धांजलि देने की कोशिश कर रहा हूं...ई·ार उनकी आत्मा को शांति दे......

Wednesday, November 4, 2009

युवा पत्रकारों की कहानी...भाग 2

pichhale लेख में पत्रकारिता की एबीसीडी...के बारे में और पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले युवा पत्रकार साथियों की मुश्किलों का जिक्र किया गया था....अब उसके आगे की कहानी पर बेबाक बनना चाहता हूं...अपने जहन में पत्रकारिता के समंदर को समेटे हुए ये युवा पत्रकार फडफड़ाते रहते हैं....मचलते रहते हैं कि काश कोई उनके गम ए बेरोजगारी को समझे...और उन पर रहम करे....लेकिन इंतजार के ये पल इतने लंबे होने लगते हैं कि इन युवा पत्रकारों को अब....पत्रकारिता की बारीकी समझने से पहले उसमें प्रवेश की जद्दोजहद का अंदाजा हो जाता है....बिल्कुल शांत सा दिखने वाला ये प्रोफेशन...अंदर से कितना उथल पुथल भरा है....इसका अंदाजा इन युवा पत्रकार साथियों से ज्यादा कौन समझ सकता है....इन्हें अब वो सब बातें याद आती हैं...जो इनके जानने वाले किसी पत्रकार ने इनसे कही थीं...जो इनसे दो चार साल पहले ही मीडिया में दाखिल हो चुके हैं..जिन्होंने इन्हें इस क्षेत्र में ना आने की सलाह दी थी..लेकिन उस समय तो ये युवा पत्रकार साथी उनसे ही सवाल करने लगते थे...कि आप भी तो इसी लाइन में हैं...आपको नौकरी कैसे मिल गई...लेकिन तब वो पत्रकार कैसे इस नई पौध को बताता कि उसकी व्यथा क्या है...कितनी कड़वाहट समेटे हुए हैं...वो अपने जहन में...इस प्रोफेशन की असलियत के बारे में ...हकीकत के बारे में....लेकिन आप सोच रहे होंगे कि आखिर मुझे क्या सूझी जो मैं ये लेख लिखने बैठ गया...पत्रकारिता की हकीकत की ऐसी की तैसी करने लगा....तो ऐसा बिल्कुल नहीं है...मै सिर्फ इस नई पौध यानि नए पत्रकारों को जो अभी तक पत्रकार नहीं बन पाए हैं...और पत्रकार बनने की धुन संजोए हुए हैं....उनको इस हकीकत से रूबरू कराना चाहता हूं....ताकि वो खुद और अपने दूसरे साथियों को इस बारे में ...इस हकीकत के बारे में बता दें....अगर हकीकत जानने के बाद आप इस मैदान में लड़ने के लिए आते हैं...तो आप खुद को यहां लड़ने के लिए तैयार कर पाएंगे....अन्यथा मायूसी के अंधेरों में खुद को ढूंढने की कोशिश करेंगे...तो अगर आप अब खुद को तैयार कर चुके हैं ....तो आइये एक नया सुनहरा कल आप के लिए तैयार है....बोलते रहिए.....

युवा पत्रकारों की story

आजकल कई ऐसे प्रोफेशन हैं...जिनमें जाने के लिए हमारे युवा खासे लालायित रहते हैं....इनमें से एक पत्रकारिता भी है...जिसकी चमक दमक....बरबस ही युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करती है...लड़का हो या फिर लड़की...दोनों की ही संख्या बराबर है.....यहां आने वालों में....और इसी लालच में वो मीडिया के संस्थान में दाखिला लेते हैं....जैसा कि वो मानते हैं कि पत्रकारिता का डिप्लोमा या फिर डिग्री हासिल कर वो स्टार एंकर, रिपोर्टर या फिर चैनल में कोई खासमखास बन जाएंगे...इस नई पौध की ऐसी इच्छा को भांपकर...कमाने वाले भी तैयार हो गए हैं...उन्होंने जगह जगह कुकुरमुत्तों की तरह अपने मीडिया के इंस्टीट¬ूट खोल दिए हैं....जिनमें वो भारी भरकम फीस लेकर ऐसे छात्र छात्राओं को अपने यहां दाखिला दे देते हैं....खास बात ये है कि ऐसे मीडिया इंस्टीट¬ूट में दाखिले के समय परीक्षा में इंटरव्यू के नाम सिर्फ खानापूर्ति की जाती है...क्योंकि इनमें से बहुत से छात्र-छात्राएं ऐसे होते हैं जिन्हे मीडिया के एम के अलावा उसके बारे में और कोई जानकारी नहीं होती...मैं ये नहीं कह रहा कि सभी ऐसे होते हैं लेकिन कुछ फीसदी तो ऐसे ही होते हैं...और ये बात वो छात्र-छात्राएं भी जानते हैं...मां बाप की गाढ़ी कमाई की भारी भरकम रकम देकर भावी पत्रकार बनने की तमन्ना लिए छात्र छात्राएं दाखिला ले लेते हैं...इस उम्मीद पर कि...बस कोर्स खत्म नहीं हुआ कि चैनल या फिर अखबार के अंदर नौकरी....फिर तो अधिकारियों के बीच उठना बैठना....लोगों में रौब गांठना...कि मैं पत्रकार हूं...शुरू हो जाएगा...और हां एक बेहतर सेलरी भी इंतजार कर रही होगी...ये सब सोचकर चल पड़ते हैं पत्रकार बनने की डगर पर....शुरू होता है कोर्स...एक ऐसा कोर्स...जिसका चैनल और अखबार के अंदर की वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं होता..सिर्फ कुछ कहे सुने सिंद्धांतों को जुबान के जरिए प्रशिक्षार्थियों के जहन में कामय कर दिया जाता है...और साथ ही एक बात और सिखाई जाती है...कि उनके इंस्टीट¬ूट से निकलते ही...एक दमदार सेलरी पैकेज उनका इंतजार करती मिलेगी...कोर्स खत्म होता है...और फिर शुरू होता है...इंटर्नशिप का दौर....लेकिन ये क्या...अब चौकने के दिन शुरू होते हैं...उनका प्रिय संस्थान तो इंटर्नशिप दिलाने में ही आनाकानी करने लगा..कलतक तो ये शान से ...कहते थे कि आप लोगों को टॉप बैंड में इंटर्नशिप कराई जाएगी..लेकिन अब पता लगा कि सारे दावे फुसफुसे थे...ये संस्थान से निकलने के बाद छात्र-छात्राओं के लिए माफ कीजिएगा युवा पत्रकारों के सामने पहला सच था...खैर ये तो था संस्थान का ड्रामा...अब आगे चलते हैं मीडिया हाउसेस.के पास..अखबार के ऑफिस और चैनलों की चकाचौंध की ओर...किसी तरह रोते गाते अखबार या फिर चैनल में इंटर्नशिप करने पहुंचते हैं...खूम दम लगाकर जान लगाकर इंटर्नशिप में सबको खुदको दिखाने और साबित करने की कोशिश करते हैं...लेकिन ये क्या ...कोई देखने को तैयार ही नहीं..सभी एक जैसा बोलते हैं...बहुत जूते घिसे हैं...तब यहां पहुंचे हैं....तब सवाल कौंधता है...कि क्या हमें भी जूते घिसने पढ़ेंगे...फिर सोचते हैं कि ऐसा थोड़े ही है...मुझमें काबिलियत है....और इसी के दम पर नौकरी भी मिलेगी....इंटर्नशिप खत्म हो गई....लोगों को खूब रिझाया इस दौरान्र.... लेकिन किसी को पसंद नहीं आए...फिर भी निराश नहीं हुए ...सोचा रिज्यूम सबमिट करते हैं...और नौकरी ढूंढते हैं...और शुरू हो गया..जूते घिसने का दौर....एक महीना, दो महीना...महीने पर महीने बीतते गए....इस आस में कि नौकरी मिल जाएगी....चैनलों और अखबार के रिशेप्सन पर रिज्यूम जमा कर कर के दम फूलने लगा....लेकिन नौकरी फिर भी नहीं....उधर घर वालों के सब्रा का बांध भी टूटने लगा...सवाल किए जाने लगे...आखिर क्या कर रहे हो..लेकिन ये युवा पत्रकार क्या जवाब देंगे....वो तो खुद अपने सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश कर रहे होते हैं...ऐसे में घर वालों के सवालों का जवाब कैसे देंगे...फिर किसी ने सलाह दी....कि जुगाड़ लगाओ...अगर चैनल या अखबार में काम करने वाले किसी शख्स से जुगाड़ लग जाए तो नौकरी मिल जाएगी...एक नई आशा के साथ फिर नौकरी ढूंढने की नई पारी खेलने के लिए तैयार हो जाते हैं....फिर शुरू होता है चैनल और अखबारों के दफ्तरों तक जाने का सिलसिला...किसी के एडिटर से बात की ...ता किसी चैनल के स्टार रिपोर्टर और एंकर से...सबने थोड़ा रुकने और सब्रा रखने की बात कही...इस आ·ाासन थके हारे घर लौटते मन को कुछ सुकून देते हुए सो जाते....सवेरे से यही सिलसिला फिर शुरू होता...लेकिन ये सिलसिला कई दिनों से हटकर महीनों पर आ चुका है..लेकिन नौकरी है...कि कोर्स करने के बाद अब और दूर लगने लगी....मीडिया में नौकरी की सच्चाई पता लग चुकी थी...लेकिन अब तो बहुत देर हो चुकी है...क्योंकि रिश्तेदारों तक को ये बता चुके हैं कि फलां चैनल में नौकरी करने लगे हैं..ये झूठ तब बोला था..जब चैनल में इंटर्नशिप कर रहे थे...सोचा था कि यहां नहीं पर कहीं तो नौकरी मिलेगी...लेकिन अब ये भरम टूट चुका है...और मैं और मेरे जैसे ना जाने कितने पत्रकार बनने से पहले ही...पत्रकार बनने की सच्चाई से बखूबी वाकिफ हो चुके हैं...शेष अगली कड़ी में। बोलते रहिए......