Tuesday, November 17, 2009

मैं महंगाई हूं

इन दिनों मेरी चर्चा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। चारों ओर, खेत खलिहान से लेकर घरों के दलान तक। शहर की गलियों से लेकर खेल के मैदान तक। हर तरफ मैं ही मैं हूं, दूसरा कोई नहीं। जब मैं अपने शबाब पर आती हूं तो देश की ज्यादातर आबादी को नानी याद आ जाती है। वे हाय हाय करते दिखाई देते हैं। फर्क नहीं पड़ता तो सिर्फ उनको जिनके पास अकूत दौलत है या फिर उनको जो सरकारी खजाने से अपना परिवार चलाते हैं।
जी हां, आपने बिलकुल ठीक समझा। मैं महंगाई हूं। इन दिनों पूरे देश में मेरा ही जलवा है। हर ओर मेरी ही चर्चा है। मैं सर्वत्र व्याप्त हूं। मैं कहीं भी पहुंच सकती हूं। और किसी पर भी काबिज हो सकती हूं। पिछले दिनों सब्जी के राजा कहे जाने वाले आलू को गुमान हो गया था कि उससे सस्ती कोई सब्जी नहीं, तो बस मैं उस पर काबिज हो गई। अब हाल देख लो। .... ऐसी ही कुछ सनक सिरफिरी दाल पर भी सवार हो गई थी, जिसे देखो वही कहता था- बस, दाल रोटी चल रही है। मैं ऐसा कब तक देख सकती थी। अगर देखती रहती तो मेरा वजूद ही खत्म हो जाता, बस मैं दाल पर सवार हो गई, अब बताओ कौन कहता है-‘दाल रोटी चल रही है।’ मैंने बच्चों को भी नहीं बख्शा। उनके दूध पर भी अपनी गिद्ध नजरें गड़ा दीं। अब गरीब माएं बच्चों को पानी मिलाकर दूध पिलाती हैं। मेरी खुद की आंखों में पानी भर आया। मुझे द्रोणाचार्य याद आ गए। किस तरह उन्होंने अश्वत्थामा को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया था चीनी मिलाकर। लेकिन मैंने तो चीनी की मिठास में भी जहर घोल दिया है। आखिर, मुझे अपना वजूद बचाए रखना है। सरकारें तो अपना वजूद बचाने के लिए नरसंहार तक करवा देती हैं, न जाने कितनी मांओं की गोद सूनी करवा देती हैं। कितनी सुहागिनों को विधवा करवा देती हैं। इनके मुकाबले तो मैंने कुछ भी नहीं किया।
मैं कोने में गुमसुम पड़ी थी, चुपचाप। सब अपनी अपनी कर रहे थे। दिल्ली की सरकार आंखें मूंदे काॅमनवेल्थ गेम्स की तैयारियों में लगी थी, उसे भी मुझसे मतलब नहीं थी। सरकार में शामिल नेताओं, विपक्षी नेताओं को मेरे आने जाने से विशेष फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मुझे अपना वजूद बचाना था। इसलिए मैं हर दिन किसी न किसी जरूरी वस्तु पर सवार होती गई, यहां तक कि कम कमाने वाले लोगों के जीवन की गाड़ी करीब करीब पंचर हो गई, लेकिन ‘गरीबों की सरकार’ फिर भी नहीं चेती। बल्कि उसने और चीजों पर सवार करवा दिया। पहले बिजली के तारों पर सवारी करवाई, और बिजली के दाम बढ़ा दिए, फिर डीटीसी की नई नवेली बसों में सवारी करवा कर अपनी जेब गर्म की, और अब दिल्ली की पहचान बन चुकी मेट्रो में भी मुझे सवार कर दिया। लोग मेरी हाय-हाय कर रहे हैं। लेकिन कर कुछ भी नहीं रहे।
अकेले मैंने देश की सरकार गिरवा दी थी। वो भी सिर्फ प्याज पर सवार होकर। लेकिन पता नहीं, इस बार इन सरकारों को क्या हो गया है? सभी जानबूझ कर मुझे जरूरी चीजों पर सवार करा रहे हैं। विपक्षी नेता मेरे बहाने अपनी राजनीति चमकाने में लगे हैं, लेकिन उन्हें भी पता है, जब मेरे चढ़ते जाने के पीछे सरकार ही है तो कोई उसका और मेरा भी क्या बिगाड़ लेगा। अब किसी के पास रीढ़ नहीं बची है, सभी बिना रीढ़ वाले जीव की तरह रेंग रहे हैं। और जनता पिस रही है।
ये लेख राजन अग्रवाल के ब्लॉग अपना इलाका से साभार लिया गया है।

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