Sunday, November 15, 2009

मीडिया का बाल दिवस



चौदह नवंबर बाल दिवस, यानि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिवस...पूरी धूमधाम के साथ देशभर में मनाया गया....इस मौके पर स्कूलों में बच्चों की ओर से कई तरह के रंगारंग कार्यक्रम भी पेश किए गए....इन कार्यक्रमों को अभिभावकों ने खूब सराहा....जाहिर सी बात है, उनके बच्चे स्कूलों में पढ़ते हैं....खैर ये अच्छी बात है....इस खास मौके को भुनाने में मीडिया ने कोई कोरकसर बाकी नहीं छोड़ी...अखबार हो या फिर न्यूज चैनल, हर कोई नेहरू जी के बारे में और उनके प्रिय यानि बच्चों के बारे में कई तरह की खबरें दिखाने में होड़ लगाते दिखा...कहीं कोई भूखे नंगे बच्चों को विजुअल्स के जरिए परोसने की कोशिश में जुटा था...तो अखबार अपनी कलम की धार के जरिए भीख मांगते और चाय की दुकानों, होटलों और सड़क पर गंदगी में अपनी जरूरत का सामान तलाश करते बच्चों की कहानी को कागज पर उकेर कर परोस रहे थे....आखिर मीडिया है....समाज को सजग करने का काम इसके ही जिम्मे है....ऊपर से देश के जिम्मेदार नागरिक भी हैं..ये सभी मीडिया समाज के लोग...ऐसे में समाज की कुरीतियों को उजागर करना तो जरूरी हो ही जाता है...सो बालदिवस के खास मौके पर गरीब और असहाय बच्चों की स्टोरी दिखाकर उनके दुख दर्द दूर करने का बीड़ा उठाया....खूब दिखाई और लिखी गर्इं कहानियां...ऐसे बच्चों पर..और लोगों ने नाश्ते की टेबल पर,खाने के समय और शाम तक उन्हें खूब पढ़ा भी...उन्हें भी इन खबरों को पढ़कर ऐसे बच्चों पर दया आ गई...कि क्या इस तरह से भी बच्चे जिंदगी जीने को मजबूर हैं...खैर दस पांच मिनट सोचा...फिर अपने काम में जुट गए...भई याददाश्त है...कमजोर हो जाती है....तो उधर टीवी और अखबार वाले भी अगले दिन खुश नजर आए...किसी ने कहा खबर खूब बिकी...तो किसी ने कहा सर्कुलेशन बेहतर रहा...बस पूरा हो गया उन असहाय और दुखियारे बच्चों के नाम पर उठाया गया मीडिया का बीड़ा...क्या सिर्फ बालदिवस पर ही गरीब बच्चों के दुखदर्द उकेरने से उनके कष्ट दूर हो जाएंगे...क्या बाकी दिनों में मीडिया के जिम्मेदार लोगों की उन पर नजर नहीं पड़ती...क्या बाकी दिनों में उन पर खबरों से टीआरपी नहीं बढ़ेगी....या फिर बालदिवस को छोड़कर उन बच्चों की स्टोरी दिखाने या लिखने लायक नहीं रहती....शायद हर चीज का दिन होता है...इसी तरह बालदिवस इन बच्चों के नाम रहा...ऊपर से अब हर चीज तो बिजनेस बन गई है...सो ज्यादा सोचने की जरूरत भी नहीं है..लेकिन क्या यही है मीडिया की हकीकत...क्या इस पेशे को शुरू करने वालों ने कभी ऐसा सोचा था...क्या कुछ दिनों पहले पंचतत्व में विलीन हुए प्रभाष जी इसी मीडिया के पक्षधर थे...बालदिवस के दिन जब मैं खुद इस तरह के पैकेजेज लिखने में तल्लीन था...मेरे जेहन में कुछ ऐसे ही सवाल कौंध गए थे....ये सवाल मैं हर मीडियाकर्मी से पूछने से पहले खुद से भी पूछ चुका हूं....लेकिन जवाब अभी तक नहीं मिल पाया है...उम्मीद करता हूं...इसके जवाब में आप कुछ बोलेंगे

3 comments:

  1. ye jawab na toh kabhi mila tha aur na hi kabhi milega....arvind ji....kehte hae samaj badalta nhi badalna padta haeee.....par koi bhi initiative lene ko tyaar nhi.....aur na hi hum ....haa...ek aasaan sa jawaab jaruur hota haee...ki hum toh employee haee...hamare haathon mei kuch nhiii haeeee

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  2. भाई 21 वीं सदी है...हम सभी आधुनिक हो गए हैं....क्या बाल दिवस पर सोंचे....और भी काम हैं...लेकिन चलो लेख लिखा ठीक है...कुछ तो काम किया...भाई आज हम लोगों के पास टाइम नहीं है....इससे भी बड़े मुद्दे हैं ...परमाणु की बात करेंगे....मोदी की बात करेंगे....और कुछ न सही तो पड़ोसी की बात ही कर लेंगे.... खाली समय में ड्राइंग रूम में नाश्ता करते हुए अगर समय मिलेगा तो चलो बाल दिवस पर ही एक दूसरे का मार्गदर्शन तो कर ही देंगे.....शेष ठीक है------अजय

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  3. ये दौलत भी ले लो
    ये शोहरत भी ले लो,
    भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी,
    मगर, मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
    वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी।

    इतने संवैधानिक उपबन्धों, नियमों-कानूनों, संधियों और आयोगों के बावजूद यदि बच्चों के अधिकारों का हनन हो रहा है, तो कहीं न कहीं इसके लिये समाज भी दोषी है। आखिरकार हम कब तक सच्चाई से मुंह मोडेंगे. बच्चे भले ही आज वोट बैंक नहीं हैं पर आने वाले कल के नेतृत्वकर्ता हैं।
    बाल दिवस की शुभकामनाऍं ।...

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